રવિવાર, 23 ઑક્ટોબર, 2016

आँखो से पिलाना आ गया

झूठ को जब आजमाना आ गया, मेरी ठोकर पे जमाना आ गया, तीरगी से अब कौन डरता है यहाँ, चाँद को जब से बुलाना आ गया, इश्क को हमने कभी समझा नहीं, बस हमें उसको निभाना आ गया, आइने के सामने होकर खडे, जिस्म को झूठा सजाना आ गया, रूह जिन्दा है मेरी मर कर यहाँ, कब्र से जज्बा जताना आ गया, खेलना आता नहीं फिर भी मुझे, हार कर बाजी जिताना आ गया, खोल कर आँखे निहारा ख्वाब भी, जब वो ख्वाबो को सजाना आ गया, 'नीर' कुछ है महफिलो का भी सुरूर, और आँखो से पिलाना आ गया ! निशीथ जोशी 'नीर' 15.10.16

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