શનિવાર, 28 ડિસેમ્બર, 2013

तेरे शहर की गलियां, वीरान रहती है

october_reflection_original_oil_on_canvas_painting_by_leonidafremov-d60arky तेरे शहर की गलियां, वीरान रहती है, तेरी हाफिझा में, वो भी आहें भरती है, छोड़ गये हो राहे सफ़र में, तन्हा जबसे, काहीदगी से आँखे, इंतिझार करती है, बेकल कर जाता है, हवा का हर झोका, चौंक जाता हूँ, जो आहटे हँसती है, बागो में फूल भी, अब लगे है मुरझाने, टूटकर कलियाँ भी, देखो दम भरती है, रहम करो, इस दिल की धड़कन पे अब, ये नफ़स, वस्ल-ए-जानां में ही बसती है !!! नीशीत जोशी 24.12.13

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