શનિવાર, 1 નવેમ્બર, 2014

ग़ज़ल बन गयी

तसव्वुर में याद आते ही ग़ज़ल बन गयी, दास्ताँ तेरी गुनगुनाते ही ग़ज़ल बन गयी, वरक़ पे क़लम ने बखूबी अपना काम किया, खून को स्याही में पाते ही ग़ज़ल बन गयी, हवा से उड़ते पन्नो से निकल पड़ा तरन्नुम, हवा के ज़ोकों के जाते ही ग़ज़ल बन गयी, छाया हुआ था सन्नाटा यूँह तो महफ़िल में, तेरे आने की खबर आते ही ग़ज़ल बन गयी, अल्हान के शौकीन हो यह मालूम था हमे, मुतरिब के रबाब बजाते ही ग़ज़ल बन गयी, तेरे नाम का जाम पीने की तिश्नगी बढ़ती रही, खुम को मुहँ तक लाते ही ग़ज़ल बन गयी !!!! नीशीत जोशी 19.10.14 (अल्हान= melodies, मुतरिब= singer, रबाब= a kind of violin, खुम= large jar of wine)

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