રવિવાર, 1 મે, 2016
दुनिया की जुबानी कुछ और थी
वो कयामत रात की कहानी कुछ और थी,
अंधेरे का खौफ फिज़ा तुफानी कुछ और थी,
खडे थे दोनो साहिल पे कुछ तन्हा तन्हा,
पर उछलती लहेरों की रवानी कुछ और थी,
नजरें मिली उन टमटमाती रोशनी के दरमीयाँ,
लब थे खामोश,आँखों में कहानी कुछ और थी,
वस्ल की वो रात बढने लगी हिज्र की तरफ,
हँसता चेहरा,रोती आँखें सुहानी कुछ और थी,
कहते न बन पडा उस रात एक दुसरे को 'नीर',
वोह खामोश रहे,दुनिया की जुबानी कुछ और थी !
नीशीत जोशी 'नीर 23.04.16
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