રવિવાર, 12 માર્ચ, 2017

कोई ठोकर लगी है क्या ?

221-2121-1221-212 दुनिया के खत्म होने की आयी घडी है क्या ? ग़ैरत की शम्आ चारों तरफ बुझ गयी है क्या ? हर सिम्त कत्ल ओ खून का मंजर गवाह है, शैतान से भी बढ के नहीं आदमी है क्या ? मज़हब के नाम पर जो लडाते हैं हर जगह, खुद उन से पूछिए के यही बंदगी है क्या ? अपने तमाम फर्ज शनाशी को छोड कर, बेफिक्र जिंदगी भी कोई जिंदगी है क्या ? कुछ पल की जिंदगी है, मुहब्बत से जी ले यार, नफरत में कोई एक भी सच्ची खुशी है क्या ? कल तक तो हँस रहे थे ज़माने पे तुम निशीत, संजीदा आज हो, कोई ठोकर लगी है क्या ? निशीत जोशी (ग़ैरत = शर्म ओ हया, फर्ज शनाशी= फर्ज की समझ)

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