શનિવાર, 27 ડિસેમ્બર, 2014
रुसवा सारा ज़माना हुआ
बढ़ा जब दर्द दिल में, क़लम को जुबाँ आयी,
महबूब की बातें, न जाने हमें ले कहाँ आयी,
करते रहे जिक्र वफ़ा का, बेवफा की बाहों में,
बहते रहे अश्क़ आँखों से, गुफ्तगू वहाँ आयी,
समझते रहे सिकंदर, मुक्क़दर का खुद ही,
मगर मुझे हाथ की लकीरे नजर कहाँ आयी,
मनाते हुए उनको रुसवा सारा ज़माना हुआ,
नफ़रत की सभी के हाथो जैसे कमां आयी,
क़त्ल किया मेरा, कातिल अदाओने उनकी,
आखिर शहरे खामोशा तक मेरी जाँ आयी !!!!
नीशीत जोशी (कमां= command) 17.11.14
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