મંગળવાર, 20 ડિસેમ્બર, 2016
मिला है ये तजुर्बा आशकी से !
1222 1222 122
बहुत उकता गया जब शायरी से,
मिला तब दर्द मुझको जिंदगी से !
गज़ल कहकर छुआ था तेरे दिल को,
खुशी मिल तो रही थी तिश्नगी से !
नकाबो में ही रहते है यहाँ सब,
मिलेगा बस वो धोखा आदमी से !
खता भी गर हुई होगी मेरी जब,
खुदा होगा कभी खुश बंदगी से !
कभी तो तू भरोशा कर मेरा भी,
सदा मैं तो रहा हूँ सादगी से !
मुहब्बत में नहीं कोई किसीका,
मिला है ये तजुर्बा आशकी से !
कभी तन्हा कभी बरबाद हो जा,
शिकायत 'नीर' की कर मुस्तदी से !
निशीत जोशी 'नीर'
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