બુધવાર, 27 એપ્રિલ, 2011

सीतारा

इस चमन में सीतारे बहोत है मगर एक तुट गया,
इस राहेमंजरमे था एक ही मगर वोह भी छुट गया,

लाख मन्नते मानी मनाने की फिर भी न माना रब,
गुजारीश के रुठते ही हर उम्मीदो का बांध तुट गया,

जो भी किया उसने शायद यही तो मंजुर होगा उसे,
रोते रह गये और इन होठो का मुश्कुराना छुट गया,

साथ नीभाने का समय शायद तय हुआ होगा इतना,
शरुआत हुयी जब साथ देनेकी तब ही साथ छुट गया,

रहमत नजर से देखता है तेरे दरबार में आनेवालोको,
उस रुह को सुकुन बक्सना जो सीतारा अभी तुट गया ।

नीशीत जोशी

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