રવિવાર, 12 ફેબ્રુઆરી, 2017
कुछ तो और थी
2122-2122-2122-212
लब रहे गूंगे मगर वो बात कुछ तो और थी,
फिर हुई जो आँख से बरसात कुछ तो और थी,
वो तबस्सुम ने रखा था बाँध कर के चाँद को,
जश्न में उसने गुजारी रात कुछ तो और थी,
मरहबा कहने को मशरूफी जो कोई हो गयी,
आज उनके घर की नक्शाजात कुछ तो और थी,
खेलते बाज़ी रहे हम रोज उनके साथ में,
जीत लेते हम मगर वो मात कुछ तो और थी,
ये सजा है या सताने का तरीका बोल तू,
प्यार करके दिल पे करती घात कुछ तो और थी !
नीशीत जोशी
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