શુક્રવાર, 17 સપ્ટેમ્બર, 2010

शोक


ना पीने का शोक था, ना पीलाने का शोक था,
हमे तो बस, उनको दिलमे बसाने का शोक था,

कमजोर नही थे, बस बना ही रहे थे बसेरा ,
पता चला की उसे तो दिलसे खेलने का शोक था,

शाकी और शराबका रिस्ताभी होता है अजीब
मयखाने मे भी उसे पयमाना टकराने का शोक था,

लडखडाते थे कदम और उनको घर पहोचाने चले,
उसे महेमानोको दर से ही वापस भेजने का शोक था,

दिलने ठान लिया अब की आने दो सामने उसे,
मगर भुल गये हमारे दिलको माफ करने का शोक था ।

नीशीत जोशी

1 ટિપ્પણી:

  1. बड़े भाई , आपकी ग़ज़ल बहुत सुन्दर है !!!

    बस एक बात कहना चाहूँगा ,,वर्तनी का थोड़ा ध्यान रखे ,,जैसे 'शोक' के स्थान पर 'शौक' लिखे ....इस से रचना की सुन्दरता बरकरार रहती है ,,,बाकी सब कुछ अच्छा है !!!

    अथाह...



    !!!

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