બુધવાર, 15 સપ્ટેમ્બર, 2010

ले जाना उस पार

ले जाना मुजे आज, इस दुनीया के पार,
मुड न जाये वापस, छोड आना उस पार,
मन तो बहोत था रहेने का, इस जहां मे,
जहा भी देखा जहांवालो को, सब बेसार,
अपने अपने मे सब पडे है, सब बेकाम,
ढोंग करते है, मगर है सब यहा बेकार,
काम पडने पर, तुजे भी नही छोडते यह,
घंटी बजा कर मंदीरकी, खोलते है बजार,
भाव-ताल तुजसे भी, जानते नही औकात,
नाम पर तेरे ही, खुलेआम करते है व्यापार,
जी मचल उठता है, देख यह सब बेहाल,
इसीलिये कहते है आके लेजा दुनीयाके पार,
पहनके पहेनावा संतो का, करते है फरेब,
सीख भी नाम मात्र की, बाकी सब कारोबार,
नही बदलेंगे ना बदल सकेगें यह सब को,
मजहबी दंगा करवाते रहेगे, कह के खुद्दार,
अब तु ही कुछ कर सकता है तो कर ले,
वरना चल दोनो साथ चलके रहेंगे उस पार ।
नीशीत जॉशी

2 ટિપ્પણીઓ:

  1. आप की रचना 17 सितम्बर, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपनी टिप्पणियाँ और सुझाव देकर हमें अनुगृहीत करें.
    http://charchamanch.blogspot.com


    आभार

    अनामिका
    pls.apna word verification hata le.

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