શુક્રવાર, 1 સપ્ટેમ્બર, 2017
बज़्म में तीरगी का है आलम
2122-1212-22
जब उसे प्यार याद आता है,
गीत मेरे वो गुनगुनाता है !
हिज्र का जिक्र आ गया होगा,
सुन उसीको वो तिलमिलाता है !
बागबाँ है रुठा ऱुठा जब से,
फूल भी खिल कहाँ तो पाता है !
हम रहें सामने उन्ही के ही,
पर वो दूरी सदा बनाता है !
शह्र खामोश है, मैं हूँ तन्हा,
ग़म भी दर्द अब बढाता है !
मंज़िलें और तो रही होगी,
कौन अब वो उफ़क दिखाता है !
बज़्म में तीरगी का है आलम,
'नीर' ही दिल यहाँ जलाता है !
नीशीत जोशी 'नीर'
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