શુક્રવાર, 1 સપ્ટેમ્બર, 2017

क्यों वो अपनी नजर फिर बचाते रहे ?

212/212/212/212 क्यों वो अपनी नजर फिर बचाते रहे ? खुद को क्यों आइने से छिपाते रहे ? एक खता ही तो थी जो हुई थी कभी, क्यों सरेआम सब को बताते रहे ? दिल किया है तुम्हारे हवाले मेरा, फिर भी तडपा के उसको रुलाते रहे ! इश्क को ज़ुर्म माना था तुमने कभी, ज़ुर्म करने मुझे क्यों बुलाते रहे ? फैसला था ये कुदरत का फिर क्यों मुझे, ज़िक्र तुम बेवफा का सुनाते रहे ! इश्क में हिज्र होना तो तय था मगर, अश्क़ आँखों से फिर भी बहाते रहे ! सामना जब हुआ मेरा दिलबर से तो, उनको इलज़ाम ही हम सुनाते रहे ! है भरोषा तो बस उस खुदा पर मुझे, दर्द को 'नीर' दिल में दबाते रहे ! नीशीत जोशी 'नीर'

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