શુક્રવાર, 1 સપ્ટેમ્બર, 2017
ऐसा हर एक शख्श यहाँ ग़मज़दा मिला
221-2121-1221-212
ऐसा हर एक शख्श यहाँ ग़मज़दा मिला,
जैसे कि मर्ज़ कोई उसे लादवा मिला!
कैसे सहा ग़मों के वो नश्तर न पूछिये,
जब भी मिला तो दर्द का एक काफ़िला मिला!
कुछ पल भी जी सका न मैं चैन ओ सुकून से,
हर इक क़दम पे मुझ को नया हादसा मिला!
छाले तो पाँव में भी पड़े उम्र भर मगर,
हद्द तो ये है कि दिल में मुझे आबला मिला!
करते रहे थे इश्क़ रवायत को भुल कर,
लेकीन कभी न प्यार का मुझको सिला मिला!
नीशीत जोशी 'नीर'
(ग़मज़दा-दुखी, लादवा- नाइलाज, आबला-छाला)
આના પર સબ્સ્ક્રાઇબ કરો:
પોસ્ટ ટિપ્પણીઓ (Atom)
ટિપ્પણીઓ નથી:
ટિપ્પણી પોસ્ટ કરો