શનિવાર, 11 જાન્યુઆરી, 2014
मयखाना
वो मयखाना बन गया है अब तो आम शायद,
वो रिंद का भी हो गया है अब तो नाम शायद,
साकी ने जो पुकारा, सुबह होते ही पहोंच गये,
ना मिटा पाये तिश्नगी हो चली है शाम शायद,
यूँ तो पीते थे मगर बहके न थे पहले ऐसे कोई,
प्यार में खुसूसियत से बना होगा जाम शायद,
इस मयकदे से कोई आ के उठता नहीं अक्सर,
पीने का नहीं देना पड़ता है कोई दाम शायद,
साकी कहें या कहे खुदा, मयखाना कहे या मंदीर?
आ जाते है फरिस्ते भी छोड़ के हर काम शायद !!!!
नीशीत जोशी
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