ગુરુવાર, 12 ઑગસ્ટ, 2010
ईन्कार
महकते फुलो की गलियारोमे रहते हो तुम,
आस्तीनमे महोब्बतका पैगाम रखते हो तुम,
गम ले के खुद को गमगीन बना लीया,
दुसरो को बह्तरीन खुशीया बांटते हो तुम,
समुन्दर बसा रखा है खुबसुरत नयनो मे,
नदी गर मीलने आये तो क्यो ठुकराते हो तुम,
छत पर आने से तेरे कयामत तो होती ही है,
एक साथ दो चांद नही खीलते यह जानती हो तुम,
मुलाकात तो महज बहाना है मिलने का,
अपनी महोब्बत से परहेज क्यो करती हो तुम,
भक्तभी करता है अपने इश्वर से महोब्बत,
नाम-ए-महोब्बत का नाम अलग समजती हो तुम,
ना कहोगी सुनके लयला-मजनु की दास्तां,
सुदामा-कृष्ण के प्यारको ईन्कार कर पाती हो तुम ।
नीशीत जोशी
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