શનિવાર, 20 ઑગસ્ટ, 2011

गांवको एक खत


शहर ने गाँव को एक खत लीखा,
मैं तो यहां कुशलमंगल हुं,
तुम अपनी कहो,
अपनी सुनाओ जरा,
वहां अभी भी गलीयारे महेकती हैं?
बारीस में मीट्टीकी खुश्बू आती हैं?
नदी का पानी खलबल करता हैं?
परींदे अभी छत पे दाना खाते हैं?
मंदिर में आज भी शाम ढले नगारे बजते हैं?
चौराहे पर आज भी लोग हसी ठठ्ठा करते हैं?
क्या त्योहारे में मीलके प्यार बांटना होता हैं?
और नया गाँव में क्या क्या होता हैं?
यहां हंसना तो दुर, रोनाभी दुस्वार हैं,
हम तो यहां प्रदुषण के मारे,
सांसे भी उधारकी जीते हैं,
बाकी तो सब ठीक हैं,
यहां जैसा भी हैं हम,
कहने को कुशलमंगल कहेलाते हैं,
कुछ अपना कुछ गाँव का हाल सुनाना,
कुछ नहीं तो गाँव की थोडी हवा यहां भीजवाना ।

नीशीत जोशी 13.08.11

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