બુધવાર, 28 ડિસેમ્બર, 2011

कैसे दिन अब काटते रहते है


मेरे वास्ते रोज महेफिल सजाता है वोह,
मुजे ही चीरागो की तरहा जलाता है वोह,

आंखो में बसा रखा है एक नूरानी दरिया,
बहाके अश्क मुजे ही याद दिलाता है वोह,

पास रहने का वादा कर के दूर चले जाना,
रात सपनोमें रोज आजाके सताता है वोह,

उसकी गली भी हो चली है सूमसान अब,
जो भी बैठे शाख पे उनको उडाता है वोह,

समंदर की रेत पे लीखा था नाम उनका,
बुलाके लहरे खुद यादोको मीटाता है वोह,

कितने खुबसूरत थे बीताये लम्हे साथ के,
अब आयनासे भी खुद को छुपाता है वोह,

कैसे दिन अब काटते रहते है बीन नीशीत,
रखके गम पास,खुशीको दूर बैठाता है वोह ।

नीशीत जोशी 26.11.11

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