શનિવાર, 22 મે, 2010

अकेला खडा था


रोशनी बहोत थी, मगर, घर अंधेरे से भरा था,
कहने को तो लोग बहोत थे, मगर, अकेला खडा था,

अंजान थी राहे, चलना भी तो था अकेला,
पथ भटक गये तो, गुमराही बना खडा था,

ईन्तजार करना न आया, करते भी कैसे?
हरबार एक नया आयाम, पथ दिखाने खडा था,

गर्दिस मे थे मेरे सामने के नजारे,
किनारे एक मुस्तफा मुश्कराते खडा था,

न जानते थे उसकी हसी का कारण,
शायद वह भी अपनी कस्ती लिये खडा था,

अब सुनली है दिलकी आवाज छोड दिमाग,
आसरा बस उसका जिसके लीये खडा था,

भरोसा है पूरा, आयेगा जरुर देरसबेर,
नीद उडा के इसीलीये उसके पथ जागता खडा था ।

नीशीत जोशी

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