શનિવાર, 22 જાન્યુઆરી, 2011

एक अंजान मुसाफिर



दिवानो की बस्ती मे एक अंजान मुसाफिर,
दर दर भटकता रहा एक अंजान मुसाफिर,
ढुंढता था वो राह जो पहोंचे उसकी मंजील,
खुद दिवाना बन बैठा एक अंजान मुसाफिर,
मील बैठा किसी एक नये दिवाने को वोह,
मस्त मलंग बन बैठा एक अंजान मुसाफिर,
पथ्थरमे भी देखा दुसरे दिलवाले दिवानोको,
बस्ती से न रहा अंजान एक अंजान मुसाफिर,
प्रेम ही मंजील समज लीया उसने टहलकर,
प्रेमकी ताकात समज गया एक अंजान मुसाफिर ।
नीशीत जोशी

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