રવિવાર, 15 એપ્રિલ, 2012

ना जाने कौन से सफर का


ना जाने कौन से सफर का एक मुसाफिर बनाया मुझे,
जाना था कहीं और ये रास्तो ने बहोत भटकाया मुझे,

अंन्धे बन चलते रहे हम पथरीले वो अन्जान पथ पर,
एक आप ही थे जीस कि बातो पर ऐतबार आया मुझे,

कहानी कुछ और सोची थी कलम चली कुछ ओर ही,
हरबार उस कहानी के असल किरदार ने बदलाया मुझे,

खुद चहेरा देखने खडे रहे आयना के सामने कई बार,
रुठा होगा शायद उसी वास्ते उसने भी जुठलाया मुझे,

पूनम का चांद भी आज हसता है तेरी बेरुखी पर 'नीर',
आज खुद जल जलके शमाने परवाना सा जलाया मुझे ।


नीशीत जोशी 'नीर'

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