રવિવાર, 26 એપ્રિલ, 2015
परिंदा हमने उड़ा दिया है
बनाके क़ासिद, परिंदा हमने उड़ा दिया है,
पता भी उसको, वो चाँद का अब बता दिया है,
ये इल्तेजा थी, के पास मेरे सदा वो आये,
मगर उसीने, ये फासला अब बढ़ा दिया है,
जो मुस्तैद जब थे सोने को हम, तो हिज्र के ग़म ने,
नहीं दिया मुझ को सोने, शब भर जगा दिया है,
जता के उल्फत, बसा है अब दूर जा के मुझ से,
के जैसे, जज़्बात अपने सारे दबा दिया है,
तसल्ली होती, जो मिलने आते कभी भी मुझ से,
मगर ये क्या, दूर जा के तुमने रुला दिया है !!!!
नीशीत जोशी 22.04.15
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