સોમવાર, 9 જાન્યુઆરી, 2012

उजाला


अंधेरा देख के उजाला की याद आती है,
सुनहरी सुबह के वास्ते ये शाम जाती है,

मुरजा जाते है कुछ फुल भी सन्नाटो में,
औश की बुंद फिर उसकी गरीमा लाती है,

चहरे पे उजाला पडे तो लगता है चमकने,
तस्वीर भी फिर देख आयना, शरमाती है,

उजालो में जब भी कर ले जो दिदार तेरा,
रुह भी कभी नज्म, कभी गझल गाती है,

उजालेमें जो भी होता है दिखता है जहांमे,
अंधेरा तो सारी बातो को खुदसे छुपाती है।

नीशीत जोशी

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