રવિવાર, 29 જાન્યુઆરી, 2012

कुछ और है


तेरी महेफिल में रहने का रिवाज कुछ और है,
तेरे यहां घाव के भरने का ईलाज कुछ और है,

पुकारती है झंकार घुंघरुओ की वापस आनेको,
पर घर में बंधे परिन्दो की अवाज कुछ और है,

सूकूनसे बैठने भी नही देते पयमाना लेके कभी,
भरा प्याला लिये शाकीका मिजाज कुछ और है,

उतर जाता है नशा शराब लगने लगती है पानी,
उनकी तिलस्मी नजरोका कामकाज कुछ और है,

रास गर न आये महेफिल फिर भी बैठना होगा,
कहा, कल जो हुआ भुल जाओ आज कुछ और है ।


नीशीत जोशी

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