રવિવાર, 12 ઑગસ્ટ, 2012
वो समंदर ही क्या
वो समंदर ही क्या जिसका कोई किनारा न हो,
वो इबादत ही क्या जिसका कोई बहाना न हो,
उतर जाते है समन्दरमें मोतिओ की तलाशमें,
वो डूबना ही क्या जिसका कोई फ़साना न हो,
महेफिलो की रोनक तो बढ़ती है उन चरागोंसे,
वो चराग ही क्या जिस पर कोई परवाना न हो,
सरगमकी धुन कानोको लगाती है बहोत मधुर,
वो मधुर धुन ही क्या जिसका कोई तराना न हो,
कहते है मारता नहीं बचाता है तू सबको जहां में,
वो इंसान ही क्या जो तेरे नामका दीवाना न हो !
नीशीत जोशी 11.08.12
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