ગુરુવાર, 31 મે, 2012

आखिर कब तलक

आज इस शाख से वो हवा को गुजरना होगा, इन सुके पत्तो को वही रहके ही सवरना होगा, कहा था उसने कोई ख्वाईश ना करना हमसे, अपनी गुजारीश के संग आज बीखरना होगा, दिये है जो झख्म अब गीने नही जाते हमसे, आज इन घावो को भी यहां अब उभरना होगा, आयना सामने रहते हुए भी शरमीन्दा है हम, आज उस शक्स के लिये फिर नीखरना होगा, आखिर कब तलक ठोकरो पे जीन्दा रहेंगे हम, एक बार तो ईबादत के लिये भी मुकरना होगा । नीशीत जोशी 28.05.12

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