રવિવાર, 6 મે, 2012

लगता है

कोइ पास रहते हुए भी दुर लगता है, कभी बेसुरा नग्मा भी सुर लगता है, हमने गुजारी ताउम्र तेरी ही बाहों मे, अब हर चहेरेमें तेरा ही नूर लगता है, तुम सामने रहो या तो रहो परदे में, तेरा साया भी चश्म-ए-बद्दुर लगता है, तेरी खुदाइ को किस कद्र मै बया करु, हर पथ्थर भी यहां कोहीनूर लगता है, हुश्न भी बनाया तारीफ-ए-काबील यहां, जहां जीसे भी देखता हूं, हूर लगता है । नीशीत जोशी 05.05.12

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