
जी लिया बहुत,मौत को बुलाते है,
वो डराये सबको हम उसे डराते है,
मेरा मुन्तजीर है शहर-ए-खामोशा,
चलो हम खुद की कब्र खुदवाते है,
मिट्टी का बदन मिट्टी में मिलेगा,
उस मिट्टी से बदन को नहलाते है,
आदमी आम हो या हो वो सिकंदर,
कब्रको ही आखरी ठिकाना बनाते है,
हकीकत से मूँह फेर के रोना क्यों,
हश्र होना है सबका ये समझाते है !
नीशीत जोशी 12.03.16
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