રવિવાર, 9 સપ્ટેમ્બર, 2012

घर

रहते है अपने ही घरमें उन कुछ अन्जानों के बिच, जिंदगानी के पन्ने पलटते रहते है दिवानो के बिच, मुराद सब की बड़ी होती रहती है हरदम इस घरमें, उलजती जाती है ये जिन्दगी अपूर्ण सपनों के बिच, मिटटी के घर में लोग रहते है वो भी तो मिटटी के, उपरवाला सब को बहलाता है उन खिलौनों के बिच, सबको एक साथ बांधके रखनाभी हो रहा है दुस्वार, कुछ रकीबभी साथ मिल गए है घरमें अपनो के बिच, घर को मंदिर कहना आसान है पर बनाना मुश्किल, कहते है ना,फरिस्ते नहीं आते कभी हैवानो के बिच ! नीशीत जोशी 03.09.12

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