રવિવાર, 15 જુલાઈ, 2012
समर्पण
गोपी ने कहा :
रे सखी ! इस बांस के तुकडे की तकदीर पर देखे ,
हर वक्त उसे अपने कान्हा के अधर पर देखे,
दूसरी ने कहा :
रे सखी ! उस का समर्पण तो देख,
पूरा उसका समस्त अर्पण तो देख,
खडा था आसमान छूने,
न छू सका,
तो,
खुद तूटा,
शरीर को बना के खोखला,
समस्त अंगो को छेदवाया,
खुद की हस्ती मिटाई,
कान्हा की प्रीत जगाई,
रे सखी ! कौन कर पाता है ऐसा समर्पण,
सब कर दिया कान्हा को वैसा अर्पण,
यह कारण है,
प्यार से बजाते है बांसुरी का तर्रुन्नुम,
हम सब को भी दीवानी बनाए हरदम |
नीशीत जोशी 09.07.12
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