
શુક્રવાર, 1 સપ્ટેમ્બર, 2017
है ये दर्दे जफ़ा कई दिन से

खुद मुहब्बत को जताने आ गये !

दर्द जिगर में सोया होगा
ऐसा हर एक शख्श यहाँ ग़मज़दा मिला

होते अगर तुम यार तो
वाह वाही

क्यों वो अपनी नजर फिर बचाते रहे ?

होंठ ही मेरे लिये तो सा'द प्याला बन गया

सोचना मत और रोना मत अब

बज़्म में तीरगी का है आलम

रवायत तो कुछ निभायेगी

प्यार दिलबर से यहाँ मिलता नहीं

काश कोई ख़्वाब लिखते,

રવિવાર, 23 એપ્રિલ, 2017
क्या करे कोई !

इश्क में कुछ तो अलामत ही सही

तीर जब रोज़ चल रहें हैं अब

और क्या क्या ?

दौर-ए-हाजिर की ये कहानी है!

दर्द के कोई बहाने यूँ न होते !

जिंदगी पल पल हँसाती ही रही

हिज्र के ग़म को बढ़ा कर वो गए !

मैं जो मरता हूँ, मरोगे तुम भी क्या?

રવિવાર, 12 માર્ચ, 2017
कोई ठोकर लगी है क्या ?

अपनों को भुला डाला है दौलत की हवस ने

जिंदगी फिर मुझे क्यों डराती रही

सहारा तो बने कोई

अल्फाज़ मिट रहे हैं जो मेरी क़िताब से

हाथ बटाना तो चाहिए

રવિવાર, 12 ફેબ્રુઆરી, 2017
शब भर हक़ीक़त छोड़िये

ढाओ न मुझ पर यूँ सितम
क्या डरना

हर शाम को

बन गया

कुछ तो और थी

हम वफा करते

आवाज देना तुम मुसव्विर की तरह

आँखों का जादू

हम क्या करें?

आराम नहीं है

तो और क्या करता

तलबग़ार कर दिया जाए

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